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इस्लाम में शादी व निकाह और आजकल के हालात (Marriage in Islam)

इस्लाम में शादी व निकाह और आजकल के हालात (Marriage in Islam)

अल्लाह पाक ने मर्द में औरत की तरफ और औरत में मर्द की तरफ दिलचस्पी और ख्वाहिश पैदा की है और दोनों में एक दूसरे की चाहत और जरूरत रखी है। दोनों की जिंदगी एक दूसरे के बिना अधूरी रहती है। इस चाहत को नफ़्सानी ख्वाहिश कहा जाता है। जिसे पूरा करना इंसानी फितरत का तकाज़ा है। यह ख्वाहिश पूरी ना हो तो इंसान की जिंदगी अधूरी सी लगती हैं, इसके बिना इंसान खुश तो रहता हैं मगर अंदर ही अंदर एक  मायूसी सी महसूस करता हैं।

इस ख्वाहिश को पूरा करने के लिए इंसान को जानवरों की तरह बिल्कुल आजाद नहीं छोड़ा गया है। इंसान चूँकि अल्लाह की मखलूक में सबसे अशरफ, इज्जतदार और काबिले एहतराम मखलूक है, इसलिए अल्लाह पाक ने इंसान को उसकी यह ज़रूरतों को पूरा करने के लिए एक बाइज़्ज़त रास्ता बताया है, जो तकरीबन सभी धर्मों में आज आम है, उसे इंसान की जरूरत समझते हुए एहतराम की नजरों से देखा जा सकता है।

इस्लाम में इस मिलाप के लिए जो रहनुमाई की है उसे निकाह कहा जाता है। निकाह का मकसद यह है कि शरीयत के दायरे में रहकर इस बंधन में बंध जाने के बाद मियां बीवी अपनी ख्वाहिश पूरी करें,जो वह एक दूसरे से चाहते हैं। निकाह से पहले जो एक दूसरे के लिए हराम थे, निकाह से अब हलाल हो गए उन्हें एक दूसरे के साथ रहने का दीनी व कौमी हक हासिल हो गया।
उन दोनों पर एक दूसरे की खिदमत वगैरह, जरूरतें पूरी करने की जिम्मेदारी आ गई यह सारे अख़तियारत निकाह के 2 लफ्ज़ो में शामिल होते हैं।

चंद लोगों की मौजूदगी में दो गवाहों के सामने एक ने कहा- मैंने तुमसे निकाह किया और दूसरे ने कहा मैंने कबूल किया, बस निकाह हो गया। इस पाक रिश्ते में बंधने और बांधने के लिए इतना ही काफी है।

अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद मुस्तफा सल्लल्लाहू अलैही वसल्लम ने इसी सादगी के साथ मस्जिद-ए-नबवी में ना जाने कितने सहाबा को निकाह के मुबारक रिश्ते में जोड़ा। इसलिए कहा जाता है की निकाह मस्जिद में होना चाहिए। बात सिर्फ इतनी थी, लेकिन अफसोस आज दुनिया ने इसे कहां से कहां पहुंचा दिया है।

अब तो सालों पहले से इसकी तैयारी होने लगती है। दोनों तरफ से खूब- खूब खर्चे करा कर उन्हें तबाह करने की स्कीमे बनाई जाती है। अब तो हाल यह है कि घर में लड़की पैदा हुई और पता हैं की उसका निकाह 18 से 20 साल बाद होगा लेकिन पैदा होते ही घर वाले उसे एक बोझ समझने लग जाते हैं। उसके लिए फ़िक्रमंद हो जाते हैं, बैंकों में उसके नाम से बचत खाता खोल लिए जाते हैं। उस बच्ची का बीमा का भी करा देते हैं। उसके नाम से तरह-तरह की बचत स्कीमों को तलाशने में लग जाते हैं ताकि उसकी शादी धूमधाम से हो सके यह सब क्यों हुआ? हकीकत तो यह है कि इंसान ने अपनी कब्र खुद ही खोद ली है। अल्लाह की बख़्शी नेमतों लज़्ज़तो को खुद ही अपने लिए मुसीबत व अज़ाब बना डाला हैं।

सुख के बदले दुख, राहत, चैन सुकून के बदले बेचैनी व परेशानी मोल ले ली है, हालांकि इस्लामी नज़रिये से अगर किसी के कई लड़कियां हो तो भी उसे फिक्रमंद होने की जरूरत नहीं लेकिन आजकल तो एक या दो बेटियां भी लोगो पर बोझ बन गई है।
 इस्लामी शरीयत में निकाह के मामले में लड़की-लड़के वालों पर कोई बोझ नहीं है। किसी पर कुछ खर्चा वाजिब नहीं किया गया हैं कि इतना और यह तो करना ही पड़ेगा।

किसी को  नाश्ता पानी और खाना खिलाने पर भी मजबूर नहीं किया गया है। हां, वलीमे की दावत को सुन्नत करार दिया गया है, लेकिन अफसोस आज हमारी कौम ने इस्लामी क़द्रो व रिवाजो को एक तरफ रख दिया है, और मांगने और खाने पर उतर आए हैं। रिश्ता तय हुआ की लड़के वालों ने लड़की वालो से कहा की हम बारात लेकर आएंगे बारातियो को यह-वह खिलाना होगा हमें यह-वह सामान देना होगा। ऐसे लोग अल्लाह की नज़र में सख्त गुनहगार हैं। जिसका अंजाम उन्हें आख़िरत में भुगतना होगा।

आजकल लोग एक नेक बंदा जो इज़्ज़त से नौकरी या धंधा करके हलाल कमाई करता हैं। उसकी आमदनी देखकर रिश्ता करते हैं। दूसरी तरफ अगर लड़का पढ़ा लिखा नहीं हैं और ऊपर से गुंडा मवाली हैं लेकिन पैसे वाला हैं, उसे ख़ुशी से अपनी लड़की सौंप देते हैं। भले ही शादी के बाद वह उसे मारे पिटे, सब मालूम होने के बावजूद कुछ लोग सिर्फ पैसा देखकर अपनी फूल से बेटी उसे सौंप देते हैं। यह हैं आजकल के कुछ मुस्लमान अल्लाह ऐसे लोगो को तौफीक दे। 

अपने आप को पढ़े लिखे, मालदार व इज़्ज़तदार समझने वाले निकाह के मामले में भिखारी बन गए हैं। तौबा तौबा! इस्लामी शरीयत ने तो लड़की वालों को कुछ भी खर्च करना जरूरी नहीं करार दिया है, बल्कि लड़के वालों को लड़की की मेहर अदा करने की ताकीद की है।

अल्लाह हमें इस्लामी शरीयत पर चलने की तौफीक अता फरमाए आमीन या रब्बुल आलमीन

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