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आबे ज़मज़म कुँवें की कहानी और इस पानी की फ़ज़ीलत

Abe Zam Zam Ka Pani

खानए काबा से महज़ 20 मीटर दुरी पर ज़म ज़म का कुआँ स्थित हैं। जो लगभग 5000 साल से भी ज़्यादा पुराना हैं। इसका पानी आज तक न कभी सूखा हैं न ही कभी ख़राब हुआ हैं। सुभानअल्लाह ! हदीस में हैं की एक बार हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम अपनी बीवी हज़रत बीबी हाज़रा और बेटे हज़रत इस्माइल को एक बीहड़ रेगिस्तान में छोड़ कर चले गए थे। उसी वक़्त हज़रत इब्राहिम के बेटे हज़रत इस्माइल जो की उस वक़्त एक दूध पीते बच्चे थे को बहुत प्यास लगी, तभी उनकी माँ हज़रत बीबी हाज़रा पानी की तलाश में इधर उधर दौड़ने लगी। जबकि ऐसे बीहड़ रेगिस्तान में पानी का कही नामोनिशान नहीं था। तभी अचानक आपके बेटे हज़रत इस्माइल के पैरों की रगड़ से एक पानी का फव्वारा जारी हो गया। हज़रत बीबी हाजरा ने उसी चमत्कारिक फव्वारे से अपने बेटे की प्यास बुझाई और आपने भी वह पानी पिया। यही फव्वारा जो आज आबे ज़म ज़म के नाम से जाना जाता हैं।

रसूले कायनात सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया ज़मज़म का पानी मुबारक हैं। यह पानी भूके के लिए खाना और बीमार के लिए दवा हैं। इस पानी में बहुत बड़ी शिफा हैं। यही वजह हैं की अल्लाह के प्यारे रसूल सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम इसे हमेशा साथ ले जाते। इसलिए हज और उमराह के मुबारक सफर पर जाने वालों के लिए वहां से ज़म ज़म शरीफ का पानी लाना सुन्नत हैं।
हमारे प्यारे रसूल को यह पानी बहुत पसंद था। आपने मक्का शरीफ के मशहूर खतीब हज़रत सहल बिन अम्र को खत लिखकर आबे ज़म ज़म तलब फ़रमाया। चुनांचे आपने दो मश्क़े आबे ज़म ज़म से भरकर ऊंट पर लदवा कर मदीना शरीफ भिजवाई।

आज के इस दौर में रासायनिक परीक्षणों से यह मालूम हुआ हैं की

1.ज़म ज़म के पानी में ऐसी चीज़ मिली हुई हैं जिससे बदन की जलन व गर्मी दूर होती हैं।
2.ज़म ज़म का पानी उलटी, मतली और सरदर्द में बहुत फायदेमंद हैं।
3.ज़म ज़म का पानी बदन को नुक्सान पहुँचाने वाले जरासीम को ख़त्म कर देता हैं।
4.इस पानी के अंदर जो सोडियम हैं उससे पेट साफ़ होता हैं और कब्ज़ की शिकायत दूर होती हैं।
5.यह पानी गठिया की बीमारी में बहुत फ़ायदा देता हैं।
6.यह पानी शुगर, खुनी पेचिश, पथरी, खुनी मस्सो के मरीज़ो के लिए बहुत मुफीद हैं।
7.इस पानी के अंदर मौजूद सोडियम क्लोराइड खून को साफ़ करता हैं पेट के दर्द और कॉलरा (हैजा) में यह पानी पीना बेहद मुफीद हैं।
8.कोयले के धुंए की ज़हरीली गैस से होने वाली तकलीफ इस पानी से दूर हो जाती हैं यह पानी बदन की कमज़ोरी को भी दूर करता हैं।
9.इस पानी में कैल्शियम कार्बोनेट भी मौजूद हैं जो खाना हज़म करने और पाचन शक्ति को मज़बूत करने में मदद करता हैं।
11.यह पानी गर्मी में लू का असर भी खत्म कर देता हैं।
12.इसमें मौजूद पौटेशियम नाइट्रेट गुर्दे के लिए बेहद मुफीद हैं यह पानी पेशाब को साफ़ करता हैं।

चालीसवां(चेहल्लुम) की फातेहा के खाने का असली हक़दार कौन?

चालीसवां(चेहल्लुम) की फातेहा का खाना किन लोगों के लिए?

इस्लामी अक़ीदा हैं की बदन से आज़ाद होने के बाद भी रूह ज़िंदा रहती हैं अज़ाब व सवाब की सजा और जज़ा उसी को भुगतनी होती हैं नेक लोगो की रूहें जन्नत की हक़दार होती हैं तो दूसरी तरफ गुनाहगारो की रूहें सज़ायें झेलती हैं।

इस्लामी अक़ीदा हैं की अगर किसी नेक काम का सवाब मरने वाले की रूह को पहुँचाया जाये तो वह ज़रूर पहुचंता हैं। अल्लाह तआला उसकी बरकत से मुर्दे का मर्तबा बुलंद करता हैं और उसकी सज़ा में भी कमी फ़रमा देता हैं और दरियाए रहमत जोश में आ जाये तो बख्श भी देता हैं। इसी अक़ीदे के तहत हम मुसलमानो में क़ुरआन ख्वानी, फातेहा, मीलाद वगैरह का दस्तूर कायम हुआ। यही रस्में बदलते बदलते अब दसवां, बिसवां, चालीसवां के नाम से मशहूर हो गयी। बेशक ऐसे खानो का सवाब भी मुर्दो को पहुँचता हैं जब तक वह सवाब की नियत से हक़दारो को खिलाया जाये। समाज के डर से या खानदान का नाम ख़राब न हो इस वजह से ऐसे खिलाना पिलाना गलत हैं। उससे न तो कोई सवाब मिलता हैं और न ही मुर्दे तक पहुंचता हैं। बिरादरी या रिश्तेदारों को चेहल्लुम का खाना खिलाना किसी भी ऐतबार से मुनासिब नहीं। हम इसे नाजाइज़ नहीं कह सकते लेकिन जो इस फातेहा के खाने के असली हक़दार हैं बेहतर हैं उन्ही को खाना खिलाया जाये।

इसाले सवाब के हिसाब से दसवां, बिसवां, चालीसवां का खाना सिर्फ गरीबो और मिस्कीनों के लिए ही हैं अगर मालदार खाते हैं तो यकीनन वह गरीबो का हक़ खाते हैं। मौजूदा दौर में चालीसवें का जो अंदाज़ हैं वह किसी भी ऐतबार से फायदेमंद नहीं बल्कि नुकसान देह हैं। आजकल देखा जाता हैं की गरीब को न बुलाकर मालदार रिश्तेदारों को चालीसवें का न्योता भेजा जाता हैं। 

ज़्यादातर लोग ऐसे मौकों पर गरीबो को अनदेखा कर देते हैं।  तमाम रिश्तेदार लोग इस तरह भर कर आते हैं जैसे किसी शादी में आये हों। खाना अच्छा लगा तो तारीफ कर देते हैं नहीं लगा तो घर जाकर बोलते हैं सही नहीं बनाया और तरह तरह की बेमतलब की बातें करते हैं। जिसका कोई मतलब नहीं। ऐसे रिश्तेदार व लोग इकठ्ठा होकर एक दूसरी की ग़ीबत में लग जाते हैं। ऐसे लोगों को बुलाना बेमतलब हैं।

दूसरी तरफ कई घरो में ऐसा होता हैं बाप अकेला कमाने वाले होता हैं और बच्चो के पास इतना पैसा नहीं होता की इतना बड़ा खाना कर सके फिर होता यूँ हैं की दसवां, बिसवां, चालीसवां के खाने के लिए बाप की बचाई रकम या कोई ज़मीन बेच कर खाने का इंतेज़ाम करते हैं क्यूंकि ज़्यादातर लोग कम आमदनी होने या पैसा न होने की वजह से एक दूसरे पर खाने का खर्च ढोल देते हैं। जिससे आपस में भाईओं के रिश्तों में कड़वाहट आ जाती हैं। भाई भाई आपस में ऐसे मौकों पर ज़मीन जायदाद के लिए लड़ जाते हैं। इससे बेहतर हैं आप कम लोगो गरीब और मिस्कीन को बुलाकर जितना आपकी हैसियत हो उस हिसाब से खाना खाना खिला दें। रूह को अज़ाब से बचाने या कम करने के लिए क़ुरान ख्वानी कर दें। गरीबों को पहनने का कपडा दे दें। यह बेहतर तरीका हैं इसाले सवाब करने का। जब भी आपके पास पैसा हो जितना हों आप यह काम उतने पैसो के हिसाब से कर दें।

कुछ बिरादरियों में दस्तूर हैं की चालीसवें के खाने के बाद सब घर वाले रिश्तेदार वगैरह जमा होते हैं और जिस तरह शादी के मौके पर घर वालों को रिश्तेदार अपने अपने रिश्ते के हिसाब से कपड़े पहनाते हैं उसी तरह चालीसवें के खाने के बाद पहनाते हैं अफ़सोस हैं की ऐसी ऐसी गलत और गैर इस्लामी हरकतें हाजियों और नमाज़ियों के सामने होती हैं लेकिन कोई टोकता नहीं।

अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम ने हज्जतुल विदा के मौके पर मैदाने अरफ़ात में अपने ख़ुत्बे के दौरान फ़रमाया था की मैं सारी गैर इस्लामी रस्मों को अपने पैरों से कुचल रहा हूँ। अल्लाह ने तुम्हारे लिए इस्लाम पसंद फ़रमा लिया हैं। लेकिन आजकल कुछ जाहिल लोगों ने अवाम को जहालत की ऐसी ही गैर इस्लामी रस्मों में इतना उलझा दिया हैं की लोग उन रस्मों को ही इस्लाम समझते हैं। कुछ आलिम लोग इस तरह बताते हैं की इतना नज़राना दो इस तरह यह करो इससे यह होगा उससे वह होगा जिससे आदमी उनकी बातों में आ जाता हैं और गैर इस्लामी रस्मों को अपना लेता हैं।

अल्लाह तआला हमें इस्लाम पर अमल करने की तौफीक दे आमीन 

या लतिफु की फ़ज़ीलत (ya latifu ki fazilat)

या लतिफु की फ़ज़ीलत (ya latifu ki fazilat)

"या लतिफु " यह वह इस्मे पाक हैं जिसके फायदे और बरकते बेपनाह हैं। एक हदीस हैं की एक मर्तबा एक बुज़ुर्ग बड़े परेशान और बदहाल थे। एक अजीब सा खौफ उनके दिमाग पर छाया हुआ था। उनके दिल में हर वक़्त एक खौफ सा रहता था। जिसकी वजह से उन्हें कभी आराम नहीं मिलता। उन बुज़ुर्ग ने एक दिन सोचा की हर दर्द की दवा हैं मुहम्मद के शहर में है तो फिर क्यों न मक्का मुअज़्ज़मा का सफर किया जाये। इससे हज का फ़र्ज़ भी अदा हो जायेगा और दरबारे रसूले पाक में हाज़री भी हो जाएगी और अपने मर्ज़ का इलाज भी हो जायेगा। लेकिन फिर वह सोचने लगे आखिर सफर करें तो कैसे? न सफर के खर्चे के लिए कोई पैसा है और न ही इतना खाने पीने का सामान जो पुरे सफर में चल जाये। लेकिन वह (बुज़ुर्ग) किसी भी हाल में वहां (मक्का मुअज़्ज़मा) जाना चाहते थे। उन्हें बस एक धुन सवार थी की मक्का मुअज़्ज़मा का सफर करना हैं। फिर क्या था उन्होंने खुदा का नाम लिया और चल पड़े मक्का मुअज़्ज़मा के सफर के लिए यह भी नहीं सोचा के आगे उनके साथ क्या होगा। कैसे बिना पैसे और खाने के सफर होगा।

सफर शुरू होते ही पहले दिन उन्होंने काफी गर्मजोशी से सफर किया, लेकिन दूसरे दिन भूक प्यास से उनकी हालत ख़राब हो गयी। फिर सफर के चौथे दिन तो हाथ पैरों ने पूरी तरह से जवाब दे दिया। उन्हें महसूस हुआ की अब वह अब कुछ ही देर के मेहमान हैं। फिर उन्होंने काबा शरीफ की तरफ रुख किया और बैठ गए और सोचा की अगर मर भी गया तो मुँह तो काबा शरीफ की तरफ रहेगा। इतने में उन्हें कमज़ोरी से नींद आ गयी। सपने में आपने (उस बुज़ुर्ग) ने देखा की एक नूरानी चेहरे वाले बुज़ुर्ग आपके करीब आये जिन्होंने अपना नाम खिज्र बताया और उन्होंने आपसे मुसाफहा किया और बशारत दी की तुम बहुत जल्द मक्का मुअज़्ज़मा पहुँच जाओगे और तुम्हारी जो भी ख़्वाहिशें है वो भी पूरी होगी। बस तुम मेरी बताई एक दुआ को दिल से तीन मर्तबा पढ़ लो। यह दुआ मेरी जानिब से तुम्हारे लिए एक तोहफा हैं। जब भी तुम्हें कोई मुश्किल पेश आये तुम इसे तीन मर्तबा पढ़ लेना। इंशाल्लाह तुम्हारी हर मुश्किल आसान हो जाएगी। दुआ इस तरह हैं या लतीफ़म बिखलकेहि या अलिमन या ख़बीर" इस तरह आपने नींद में ही हज़रते खिज्र अलैहिस्सलाम  के साथ यह दुआ दुहराई और उसके फ़ौरन बाद किसी शख्स ने आपको नींद से जगा दिया वह शख्स ऊंट पर सवार था और हज के लिए जा रहा था। एक दूसरे की हालत जानने के बाद उस शख्स ने बुज़ुर्ग शख्स को अपने साथ ले लिया। खाने पीने के सामान के अलावा आपको ऊंट की सवारी भी मिल गयी। इस तरह वह बुज़ुर्ग मक्का मुअज़्ज़मा पहुँच गए।

मक्का में पहुंचते ही कोई शख्स आया और उसने रूपए से भरी थैली आपको दी और फ़रमाया की मेरी तरफ से घर वापसी के लिए आप यह रख लीजिये गोया आपकी वापसी के लिए खुदा ने इंतज़ाम फरमा दिया था। उसके बाद बुज़ुर्ग आदमी मदीना मुनव्वरा तशरीफ़ ले गए। रौज़ए रसूले पाक की ज़ियारत की और अपने हर मर्ज़ के इलाज की दुआ के साथ वापिस घर वापिस आ गए। कुछ दिन के बाद आपकी जितनी भी परेशानियां थी वह दूर हो गयी। सुभानअल्लाह।

एक और किस्सा सुनिए ! सैरुल आरिफ़िन में हज़रत शेख औहदुद्दीन किरमानी रहमतुल्लाह अलैहि ने भी एक रिवायत में फ़रमाया हैं की एक दिन वह हज़रत शेख जलालुद्दीन तबरेज़ी रहमतुल्लाह अलैहि के हमराह काबा शरीफ के ज़ियारत के लिए जा रहे थे। साथ में उनका काफिला भी था। रेगिस्तान की गर्मी अपनी इंतेहा पर थी। पहाड़ी रास्ते और पानी की किल्लत क़यामत बरपा रही थी। नतीजा यह हुआ की काफिले वालों के तमाम ऊँटो ने दम तोड़ दिया। पहाड़ी लोगो को पता चला तो वह इस मौके का फ़ायदा उठाने की गरज़ से अपने ऊंटों के साथ वहां आ पहुंचे और मुहमांगे दामों में ऊंट बेचने लगे। जो अमीर लोग थे उन्होंने बेझिझक ऊंट खरीदना शुरू कर दिया लेकिन गरीब लोग मायूसी और बेबसी से हाथ मलने लगे। हज़रत शेख जलालुद्दीन तबरेज़ी रहमतुल्लाह अलैहि से यह देखा न गया। आप आगे तशरीफ़ लाये और अपने कपड़ो में से एक थैली निकाली, फिर "या लतीफो पढ़ा" फिर थैली में हाथ डाला और अशरफियां निकल कर ऊंट वालो को देना शुरू कर दी। इसी अमल से आपने एक एक करके पांच सौ ऊंट ख़रीदे और गरीबों में तकसीम फरमा दिए लेकिन खुद पैदल बैतुल्लाह तक तशरीफ़ ले गए।

इस इस्मे पाक (या लतिफु) की ख़ैरो बरकत का ज़िक्र कई और हदीसों में मौजूद हैं। पाबन्दी के साथ इसे पढ़ना कई बलाओं से महफूज़ रखता हैं और कई मुराद पूरी करता हैं। अगर कोई बेरोज़गार हो या तंगदस्ती और फाकाकशी (भूक से मर रहा हो) या किसी और मुसीबत से परेशान हो तो हर नमाज़ के ख़तम होने के बाद 100 मर्तबा "या लतिफु" और 21 मर्तबा दुरुद शरीफ पढ़कर दुआ मांगे। इंशाअल्लाह दुआ कबूल होगी। शर्त यह हैं की जब तक मकसद पूरा न हो तब तक पुरे यकीन और ऐतमाद के साथ यह अमल जारी रखा जाये।

अल्लाह हम सबको इस्लाम में बताये रास्तो पर चलने की तौफीक अता फरमाए आमीन