इस्लामी अक़ीदा हैं की बदन से आज़ाद होने के बाद भी रूह ज़िंदा रहती हैं अज़ाब व सवाब की सजा और जज़ा उसी को भुगतनी होती हैं नेक लोगो की रूहें जन्नत की हक़दार होती हैं तो दूसरी तरफ गुनाहगारो की रूहें सज़ायें झेलती हैं।
इस्लामी अक़ीदा हैं की अगर किसी नेक काम का सवाब मरने वाले की रूह को पहुँचाया जाये तो वह ज़रूर पहुचंता हैं। अल्लाह तआला उसकी बरकत से मुर्दे का मर्तबा बुलंद करता हैं और उसकी सज़ा में भी कमी फ़रमा देता हैं और दरियाए रहमत जोश में आ जाये तो बख्श भी देता हैं। इसी अक़ीदे के तहत हम मुसलमानो में क़ुरआन ख्वानी, फातेहा, मीलाद वगैरह का दस्तूर कायम हुआ। यही रस्में बदलते बदलते अब दसवां, बिसवां, चालीसवां के नाम से मशहूर हो गयी। बेशक ऐसे खानो का सवाब भी मुर्दो को पहुँचता हैं जब तक वह सवाब की नियत से हक़दारो को खिलाया जाये। समाज के डर से या खानदान का नाम ख़राब न हो इस वजह से ऐसे खिलाना पिलाना गलत हैं। उससे न तो कोई सवाब मिलता हैं और न ही मुर्दे तक पहुंचता हैं। बिरादरी या रिश्तेदारों को चेहल्लुम का खाना खिलाना किसी भी ऐतबार से मुनासिब नहीं। हम इसे नाजाइज़ नहीं कह सकते लेकिन जो इस फातेहा के खाने के असली हक़दार हैं बेहतर हैं उन्ही को खाना खिलाया जाये।
इसाले सवाब के हिसाब से दसवां, बिसवां, चालीसवां का खाना सिर्फ गरीबो और मिस्कीनों के लिए ही हैं अगर मालदार खाते हैं तो यकीनन वह गरीबो का हक़ खाते हैं। मौजूदा दौर में चालीसवें का जो अंदाज़ हैं वह किसी भी ऐतबार से फायदेमंद नहीं बल्कि नुकसान देह हैं। आजकल देखा जाता हैं की गरीब को न बुलाकर मालदार रिश्तेदारों को चालीसवें का न्योता भेजा जाता हैं।
ज़्यादातर लोग ऐसे मौकों पर गरीबो को अनदेखा कर देते हैं। तमाम रिश्तेदार लोग इस तरह भर कर आते हैं जैसे किसी शादी में आये हों। खाना अच्छा लगा तो तारीफ कर देते हैं नहीं लगा तो घर जाकर बोलते हैं सही नहीं बनाया और तरह तरह की बेमतलब की बातें करते हैं। जिसका कोई मतलब नहीं। ऐसे रिश्तेदार व लोग इकठ्ठा होकर एक दूसरी की ग़ीबत में लग जाते हैं। ऐसे लोगों को बुलाना बेमतलब हैं।
दूसरी तरफ कई घरो में ऐसा होता हैं बाप अकेला कमाने वाले होता हैं और बच्चो के पास इतना पैसा नहीं होता की इतना बड़ा खाना कर सके फिर होता यूँ हैं की दसवां, बिसवां, चालीसवां के खाने के लिए बाप की बचाई रकम या कोई ज़मीन बेच कर खाने का इंतेज़ाम करते हैं क्यूंकि ज़्यादातर लोग कम आमदनी होने या पैसा न होने की वजह से एक दूसरे पर खाने का खर्च ढोल देते हैं। जिससे आपस में भाईओं के रिश्तों में कड़वाहट आ जाती हैं। भाई भाई आपस में ऐसे मौकों पर ज़मीन जायदाद के लिए लड़ जाते हैं। इससे बेहतर हैं आप कम लोगो गरीब और मिस्कीन को बुलाकर जितना आपकी हैसियत हो उस हिसाब से खाना खाना खिला दें। रूह को अज़ाब से बचाने या कम करने के लिए क़ुरान ख्वानी कर दें। गरीबों को पहनने का कपडा दे दें। यह बेहतर तरीका हैं इसाले सवाब करने का। जब भी आपके पास पैसा हो जितना हों आप यह काम उतने पैसो के हिसाब से कर दें।
कुछ बिरादरियों में दस्तूर हैं की चालीसवें के खाने के बाद सब घर वाले रिश्तेदार वगैरह जमा होते हैं और जिस तरह शादी के मौके पर घर वालों को रिश्तेदार अपने अपने रिश्ते के हिसाब से कपड़े पहनाते हैं उसी तरह चालीसवें के खाने के बाद पहनाते हैं अफ़सोस हैं की ऐसी ऐसी गलत और गैर इस्लामी हरकतें हाजियों और नमाज़ियों के सामने होती हैं लेकिन कोई टोकता नहीं।
दूसरी तरफ कई घरो में ऐसा होता हैं बाप अकेला कमाने वाले होता हैं और बच्चो के पास इतना पैसा नहीं होता की इतना बड़ा खाना कर सके फिर होता यूँ हैं की दसवां, बिसवां, चालीसवां के खाने के लिए बाप की बचाई रकम या कोई ज़मीन बेच कर खाने का इंतेज़ाम करते हैं क्यूंकि ज़्यादातर लोग कम आमदनी होने या पैसा न होने की वजह से एक दूसरे पर खाने का खर्च ढोल देते हैं। जिससे आपस में भाईओं के रिश्तों में कड़वाहट आ जाती हैं। भाई भाई आपस में ऐसे मौकों पर ज़मीन जायदाद के लिए लड़ जाते हैं। इससे बेहतर हैं आप कम लोगो गरीब और मिस्कीन को बुलाकर जितना आपकी हैसियत हो उस हिसाब से खाना खाना खिला दें। रूह को अज़ाब से बचाने या कम करने के लिए क़ुरान ख्वानी कर दें। गरीबों को पहनने का कपडा दे दें। यह बेहतर तरीका हैं इसाले सवाब करने का। जब भी आपके पास पैसा हो जितना हों आप यह काम उतने पैसो के हिसाब से कर दें।
कुछ बिरादरियों में दस्तूर हैं की चालीसवें के खाने के बाद सब घर वाले रिश्तेदार वगैरह जमा होते हैं और जिस तरह शादी के मौके पर घर वालों को रिश्तेदार अपने अपने रिश्ते के हिसाब से कपड़े पहनाते हैं उसी तरह चालीसवें के खाने के बाद पहनाते हैं अफ़सोस हैं की ऐसी ऐसी गलत और गैर इस्लामी हरकतें हाजियों और नमाज़ियों के सामने होती हैं लेकिन कोई टोकता नहीं।
अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम ने हज्जतुल विदा के मौके पर मैदाने अरफ़ात में अपने ख़ुत्बे के दौरान फ़रमाया था की मैं सारी गैर इस्लामी रस्मों को अपने पैरों से कुचल रहा हूँ। अल्लाह ने तुम्हारे लिए इस्लाम पसंद फ़रमा लिया हैं। लेकिन आजकल कुछ जाहिल लोगों ने अवाम को जहालत की ऐसी ही गैर इस्लामी रस्मों में इतना उलझा दिया हैं की लोग उन रस्मों को ही इस्लाम समझते हैं। कुछ आलिम लोग इस तरह बताते हैं की इतना नज़राना दो इस तरह यह करो इससे यह होगा उससे वह होगा जिससे आदमी उनकी बातों में आ जाता हैं और गैर इस्लामी रस्मों को अपना लेता हैं।
अल्लाह तआला हमें इस्लाम पर अमल करने की तौफीक दे आमीन
अल्लाह तआला हमें इस्लाम पर अमल करने की तौफीक दे आमीन
बिल्कुल सही
जवाब देंहटाएंहक बात लिखी है आपने
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